शनिवार, 17 दिसंबर 2011

वह गीत गजल गीतिका बन महफिल सजाती है



मन के भीतर के पटल पर कल्पना उभर आती है
 
भिन्न रूपों में हो बिम्बित कलाये मुस्कराती है
 
 
लिए ह्रदय आनंद कंद मस्ती लुटाती है
 
वह शब्द शिल्प से अलंकृत श्रृंगार पाती है 

 संवेदना का भाव लिए हर पल सताती है
 
वह गीत गजल गीतिका बन महफिल सजाती है

 लेकर गुलाबी सी लहर चहु और छाती है
 
वह स्वयं सिद्दा बन गजल हल चल मचाती है



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न बिकती हर चीज

लज्जा का आभूषण करुणा  के बीज कौशल्या सी नारी तिथियों मे तीज  ह्रदय मे वत्सलता  गुणीयों का रत्न   नियति भी लिखती है  न बिकती हर चीज