विश्वास जब श्रध्द्दा के वसन धारण कर लेती है
तो आस्था बन जाती है
हजारो आस्थाये जब प्रतिमा पर एकत्र हो जाती है
तो प्रतिमा प्रतिमा नहीं रह जाती
मंदिर में जीवंत हो वह देवता और देवी कहलाती है
आराधना जिसकी हम करे
वे हमारे आराध्य कहलाते है
अनिष्ट का हरण करे
अभिष्ट की पूर्ति करे हम उन्हें ईष्ट कहते है
ईष्ट हमारी साँसों में और ईष्ट के भाव लोक में हम रहते है
आलॊकित करे अन्तर्मन को
उस व्यक्तित्व को हम महापुरुष , संत, महंत , कहेंगे
जीवन की सकारात्मकता को छोड़ कर
तो हम भयभीत ही रहेंगे
अच्छाई जब नहीं मिल पाती है
तो आशाये बिखर बिखर जाती है
सद विचारों के बीच पाकर यह आत्मा
अपनी वास्तविकता समझ जाती है
अंधियारे के भीतर हलकी सी रोशनी
जहा जहा भी नजर आती है
अनुभूतिया अवतरित हो
परम सत्ता की नजदीकिया पाती है
पी ले हलाहल का प्याला
तो व्यक्तित्व शिव शंभू कहलाये
भूंखे नंगे को दे निवाला
तो विश्वनाथ बन कर आये
सज्जनों का पाकर साथ तन चंगा
और यह मन गंगा में नहाये
आपकी यह रचना आज गुरुवार (11-07-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
जवाब देंहटाएंवाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
सुंदर अभिव्यक्ति..
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