बुधवार, 10 जुलाई 2013

आस्था

  विश्वास  जब श्रध्द्दा  के वसन  धारण  कर  लेती  है 
तो आस्था  बन  जाती  है 
हजारो  आस्थाये जब  प्रतिमा पर एकत्र  हो जाती  है 
तो प्रतिमा  प्रतिमा नहीं रह जाती 
मंदिर में जीवंत  हो वह  देवता और  देवी  कहलाती  है  
आराधना जिसकी हम करे 
वे हमारे  आराध्य  कहलाते है 
अनिष्ट  का  हरण  करे 
अभिष्ट  की पूर्ति करे हम  उन्हें ईष्ट  कहते  है 
ईष्ट  हमारी  साँसों  में और ईष्ट के भाव  लोक  में  हम  रहते है 
आलॊकित करे अन्तर्मन  को 
उस व्यक्तित्व  को हम महापुरुष , संत, महंत , कहेंगे 
जीवन  की सकारात्मकता  को छोड़ कर 
तो हम भयभीत  ही रहेंगे 
अच्छाई जब नहीं मिल पाती है
 तो आशाये बिखर बिखर जाती है 
सद  विचारों के बीच पाकर यह आत्मा  
अपनी वास्तविकता समझ  जाती है 
अंधियारे  के  भीतर  हलकी सी रोशनी 
जहा  जहा  भी नजर आती है 
 अनुभूतिया  अवतरित  हो 
परम  सत्ता  की नजदीकिया  पाती  है 
पी  ले हलाहल  का   प्याला 
तो व्यक्तित्व शिव  शंभू  कहलाये 
भूंखे  नंगे को दे  निवाला 
तो  विश्वनाथ   बन  कर आये 
सज्जनों  का पाकर  साथ तन   चंगा 
और यह  मन  गंगा  में नहाये 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यह रचना आज गुरुवार (11-07-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |

    जवाब देंहटाएं

आँगन का दीपक

जहा दिव्य हैं ज्ञान  नहीं  रहा  वहा  अभिमान  दीपक गुणगान  करो  करो  दिव्यता  पान  उजियारे  का  दान  करो  दीपक  बन  अभियान  दीपो ...