रिश्ते भी तो रिस रहे है ,
रिक्त होते जा रहे है
गिद्ध नोंचे है घ्रणा के ,
घाव भी गहरा रहे है
बढ रही है खाईया है
सम्वाद सेतु ढा रहे है
स्वर ठहरे द्वेष के ही
सदभाव घटते जा रहे है
वे अा रहे कही जा रहे
उर स्पर्श न कर पा रहे है
निष्ठुरता रहती ह्रदय मे
ह्रदय को तरसा रहे है
दूरिया बढती परस्पर
परछाई बन पछता रहे है
हर तरफ रूसवाईया है
रूबाईयो को गा रहे है
वेद की भुले ॠचाये
अब वे नचाये जा रहे है
इतरा रहे गीत गा रहे
घट छलछलाते जा रहे है
ज्ञेय अौर अज्ञेय हेतु
से सताये जा रहे है
मूल्य बढते है अकारण
कारण गिनाये जा रहे है
तंत्र मारण अौर जारण
से निवारण पा रहे है
धर्म धारण कर रहे है
कर्म से घबरा रहे है
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