मुस्कराहट छीन गई है मेरे अपने इस शहर से
छा गई है क्यों उदासी ,आंधीया आई किधर से
गैरो को हम दोष क्यों दे ,टूटते रिश्ते बिखर के
आचमन होते लहू के ,अब घृणा आई संवर के
टूटती ही जा रही है, मानवीयता भीतर से
दंगो ने है घर जलाए ,दंगे सपनो को रुलाये
माँ की ममता रो रही है ,बेटो को कैसे सुलाए
भीड़ में तो भेडिये है ,लाशें आई है जिधर से
छा गई है क्यों उदासी ,आंधीया आई किधर से
गैरो को हम दोष क्यों दे ,टूटते रिश्ते बिखर के
आचमन होते लहू के ,अब घृणा आई संवर के
टूटती ही जा रही है, मानवीयता भीतर से
दंगो ने है घर जलाए ,दंगे सपनो को रुलाये
माँ की ममता रो रही है ,बेटो को कैसे सुलाए
भीड़ में तो भेडिये है ,लाशें आई है जिधर से
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