सिमटी हुई दूरिया
देश से देश की
वेश की परिवेश
नगर से नगर की
डगर से डगर
सफ़र से ठांव की
गाँव से गाँव की
पेड़ से छाँव की
सिमटी ही जा रही
संबंधो के दायरे
संकीर्ण होते जा रहे
यह देख अनजाना भय
कचोटता है ह्रदय
सोचता रिश्तो की यह सिकुडन
कही शून्य में न समा जाए
तब शून्य में प्रविष्ट समष्टि को
विलुप्त होती सृष्टि को
कहा होती सृष्टि को
कहा जाएगा यही है यही है
प्रलय का परिचय
देश से देश की
वेश की परिवेश
नगर से नगर की
डगर से डगर
सफ़र से ठांव की
गाँव से गाँव की
पेड़ से छाँव की
सिमटी ही जा रही
संबंधो के दायरे
संकीर्ण होते जा रहे
यह देख अनजाना भय
कचोटता है ह्रदय
सोचता रिश्तो की यह सिकुडन
कही शून्य में न समा जाए
तब शून्य में प्रविष्ट समष्टि को
विलुप्त होती सृष्टि को
कहा होती सृष्टि को
कहा जाएगा यही है यही है
प्रलय का परिचय
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