सोमवार, 18 मार्च 2013

प्रलय का परिचय

सिमटी हुई दूरिया 
 देश से देश की 
वेश की परिवेश 
नगर  से नगर की 
डगर से डगर 
सफ़र से ठांव की 
गाँव से गाँव की 
पेड़ से छाँव की 
सिमटी ही जा रही 
 संबंधो के दायरे
 संकीर्ण होते जा रहे 
यह देख अनजाना भय 
कचोटता है ह्रदय 
सोचता रिश्तो की यह सिकुडन 
कही शून्य में न समा जाए  
तब शून्य में प्रविष्ट समष्टि को 
विलुप्त होती सृष्टि को 
कहा होती सृष्टि को 
कहा जाएगा यही है यही है 
प्रलय का परिचय  

 

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न बिकती हर चीज

लज्जा का आभूषण करुणा  के बीज कौशल्या सी नारी तिथियों मे तीज  ह्रदय मे वत्सलता  गुणीयों का रत्न   नियति भी लिखती है  न बिकती हर चीज