रविवार, 24 जून 2018

सामने दिखती ढलान

हौसलो से घोसले है 

पंख भरते है उड़ान

जिंदगी बिकने को आई 

बनने लगे है जब मकान

रोटियों के वास्ते ही

 है बिछुड़ता हर शहर

पंथ के लंबे सफर पर 

लगने लगी है अब थकान

 

घाटियों पर है चढ़ाई 

लाद कर ढोते समान

चोटियों जिसने भी पाई 

दिल की दुनिया है वीरान

अब रही न महफिले है 

अब कही न फूल खिले है

गीत और संगीत रोता 

काव्य भी लेता विराम

 

हर तरफ तकरार आई 

जख्म के होते निशान

धूर्तता ने घेर ली है 

सादगी की अब दुकान

स्वार्थ से वह घेरता है 

अब नजर वह फेरता है

छल कपट का है अंधेरा 

सामने दिखती ढलान

 

 

स्वारथ की घुड़दौड़

चू -चु करके  चहक  रहे   बगिया  आँगन  नीड़  जब पूरब  से  भोर  हुई  चिडियों  की  है  भीड़  सुन्दरतम है  सुबह  रही  महकी  महकी  शाम  सुबह  के  ...