मजदूरों की पीड़ा को , नाप सके तो नाप
उनकी अपनी थी शंकाये, उनके अपने डर
तू अपने हर सपने को , निर्भयता से भर
दिखती दूर तक मरुधरा, दिखती दूर तक रेत
गिरकर उठता रोज यहाँ, टपका जिसका स्वेद
जितने भी थे लौट गये , अपने अपने घर
सूरज उगता अस्त रहा ,उसका तेज प्रखर