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शनिवार, 11 अप्रैल 2020

चली वह निरन्तर खुशी पा रही है

बही जा रही है बही जा रही है 
नदी बन तरलता ,बही जा रही है 

शीतलता सरलता  उसने है पाई
छलकती हुई वह लहरा  रही है

न घबरा रही है न शर्मा रही है 
सिमटती उफनती चली जा रही है

कहा जा रही है यह पता ही नही है 
ढलानों पे हो कर वह गहरा रही है 

नही वह थकी है  नही वह रुकी है
चली वह निरंतर खुशी पा रही है

उजाले की किरण रही वह कभी तो
छवि अस्ताचल की  नज़र आ रही है

मैला जो जल है उसी का है हिस्सा
वह मानव के हाथों ठगी जा रही है 

कभी बनती रेवा तो कभी होती गंगा
वह हाथो से अस्थि कभी पा रही है 

यहाँ है वहा है  मनुजता कहा है ?
मनुज मन है मैला वह सजा पा रही है 

कभी अतिवृष्टि कभी है बवंडर 
कभी आंधियो से लड़ी जा रही है 

शनिवार, 22 मार्च 2014

पेड़ बचा लो छाया पा लो

दिल में दर्द भरा तो छलका 
आँखों में भावो का जल 
नदिया निर्झर की धाराये
बहती जाती है कल -कल 

 बारिश छम छम नाच रही है
 बाँध रखे घूँघरु पायल 
 चमकी बिजली  गिरते ओले
  नभ पर गरजे है बादल        
 मौसम की होती मनमानी 
उठती लहरो की हल चल 
 मीठी वाणी कोयल रानी 
भींगी राहे है खग -दल 

मरुथल मांग रहा है पानी 
बालू रेती हुई पागल 
घायल साँसे वृक्ष कँटीले 
दुर्गम  राहे बिछड़ा दल 
फाग अनूठे मस्त सुरीले
मस्त हवाये हुई चंचल 
उजड़े वन तो व्याकुल जीवन 
जंगल जंगल है दल दल 

चींटी मकड़ी तितली रानी
 में भी होता अतुलित बल 
प्यासे को पानी  की बूंदे 
बूँद दे रही कुछ  सम्बल
पेड़ बचा लो छाया पा लो 
निखरा होगा भावी कल 
बारिश से नदिया पूर होगी 
 होगा मीठा निर्मल जल 

शनिवार, 24 मार्च 2012

उज्जवल,कोमल निर्मल कहाँ जल

कल -कल छल-छल बहता है जल
थम गई बारिश निकले खग-दल

सूख गई माटी,बढ रही घाटी
जंगल जंगल हो गया दंगल
जन बल निर्बल,धन बल का बल
जल-थल पल-पल बनते मरुथल

 ऐसा वैसा क्या करे पैसा 
मौसम हो गया मानव जैसा
बढ गया भ्रम जल,घट गया भू जल
लालच का दल ,निकला मल जल

करते हम तुम मनमानी है
ढूँढते रह गये शुध्द पानी है
उज्जवल,कोमल निर्मल कहाँ जल
सुध-बुध खो गई थम गई हल-चल

आई याद मां की