शनिवार, 11 अप्रैल 2020

चली वह निरन्तर खुशी पा रही है

बही जा रही है बही जा रही है 
नदी बन तरलता ,बही जा रही है 

शीतलता सरलता  उसने है पाई
छलकती हुई वह लहरा  रही है

न घबरा रही है न शर्मा रही है 
सिमटती उफनती चली जा रही है

कहा जा रही है यह पता ही नही है 
ढलानों पे हो कर वह गहरा रही है 

नही वह थकी है  नही वह रुकी है
चली वह निरंतर खुशी पा रही है

उजाले की किरण रही वह कभी तो
छवि अस्ताचल की  नज़र आ रही है

मैला जो जल है उसी का है हिस्सा
वह मानव के हाथों ठगी जा रही है 

कभी बनती रेवा तो कभी होती गंगा
वह हाथो से अस्थि कभी पा रही है 

यहाँ है वहा है  मनुजता कहा है ?
मनुज मन है मैला वह सजा पा रही है 

कभी अतिवृष्टि कभी है बवंडर 
कभी आंधियो से लड़ी जा रही है 

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