रविवार, 24 जून 2018

सामने दिखती ढलान

हौसलो से घोसले है 

पंख भरते है उड़ान

जिंदगी बिकने को आई 

बनने लगे है जब मकान

रोटियों के वास्ते ही

 है बिछुड़ता हर शहर

पंथ के लंबे सफर पर 

लगने लगी है अब थकान

 

घाटियों पर है चढ़ाई 

लाद कर ढोते समान

चोटियों जिसने भी पाई 

दिल की दुनिया है वीरान

अब रही न महफिले है 

अब कही न फूल खिले है

गीत और संगीत रोता 

काव्य भी लेता विराम

 

हर तरफ तकरार आई 

जख्म के होते निशान

धूर्तता ने घेर ली है 

सादगी की अब दुकान

स्वार्थ से वह घेरता है 

अब नजर वह फेरता है

छल कपट का है अंधेरा 

सामने दिखती ढलान

 

 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आज के हालात पे सटीक टीका है ये रहना ...
    बहुत लाजवाब ...

    जवाब देंहटाएं
  2. निमंत्रण विशेष : हम चाहते हैं आदरणीय रोली अभिलाषा जी को उनके प्रथम पुस्तक ''बदलते रिश्तों का समीकरण'' के प्रकाशन हेतु आपसभी लोकतंत्र संवाद मंच पर 'सोमवार' ०९ जुलाई २०१८ को अपने आगमन के साथ उन्हें प्रोत्साहन व स्नेह प्रदान करें। सादर 'एकलव्य' https://loktantrasanvad.blogspot.in/

    जवाब देंहटाएं

न बिकती हर चीज

लज्जा का आभूषण करुणा  के बीज कौशल्या सी नारी तिथियों मे तीज  ह्रदय मे वत्सलता  गुणीयों का रत्न   नियति भी लिखती है  न बिकती हर चीज