शनिवार, 1 सितंबर 2012

कृष्ण सा चितचोर है

हर तरफ चिंगारिया है,होता रहा चहु शोर है
प्रश्नो का रहता हिमालय, कही ओर है न छोर है

सीने मे है दिल धडकते दिल पर नही अब जोर है
अब घुमडती आंधिया है चलता मचलता दौर है

जय विजय मिलती रही है, मिलती नहीं कही ठोर है
माया ममता का धरातल हर पल फिसलती डोर है

छल रहे मन और मनुज, छल से भरी हर भोर है
रोता बिलखता बालपन ,देता नही मुख कोर है

नैपथ्य में असली कहानी ,मंच पर कुछ और है
ले गया सुख चैन मन का , कृष्ण सा चितचोर है
 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अपनो को पाए है

करुणा और क्रंदन के  गीत यहां आए है  सिसकती हुई सांसे है  रुदन करती मांए है  दुल्हन की मेहंदी तक  अभी तक सूख न पाई क्षत विक्षत लाशों में  अपन...