शुक्रवार, 24 मई 2013
दोषी मंगल कहलाता है
एक घना अन्धेरा जीवन में, चादर सा लिपटा जाता है
दुर्भाग्य अँधेरी गहरी सी, खाई सा दिखता जाता है
मिली भाग्य नहीं सुरभित, कलियाँ भवरा फिर भी कुछ गाता है
रहा काल चक्र का घोड़ा, पथ पर तेजी से दौड़ा जाता है
दुर्बल के दर पर धुल रहे, धीरज का फल मिल पाता है
चौड़ी हो चिकनी सड़के हो ,वह राजपथ कहलाता है
जहा पग डंडिया गुजर रही, गाँवों तक रस्ता जाता है
घटनाएं जब जब होती है, निर्धन सुत कुचला जाता है
घर घर में होते दंगल है, दोषी मंगल कहलाता है
यहाँ अपमानो का गरल तरल, जीवन की खुशिया खाता है
किस्तों में मिलती मौत रही ,नित मानव मरता जाता है
पूरब से उदित हुआ सूरज ,पश्चिम में ढलता जाता है
गैया मैया तो कैद रहे ,अब विषधर विचरा जाता है
अब वृन्दावन की गलियों में, कान्हा भी छलता जाता है
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