गुरुवार, 21 सितंबर 2017

बुझी हुई राख

जले हुए कोयले है ,बुझी हुई राख
मिटटी में मिल गई ,बची खुची साख

वैचारिक दायरो में कैद हुए मठ
 हार गई अच्छाई जीत गए शठ
आस्थाये जल गई  आशा हुई
ख़ाक
लूट गई लज्जा है ,कहा गई धाक 

उजड़े हुए आशियाने ,जल गए पंख
आस्तीन में छुप गए , दे गए डंक
उल्लू की बस्तिया है, झुकी हुई शाख
सूजे हुए चेहरे है , सूजी हुई आँख


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न बिकती हर चीज

लज्जा का आभूषण करुणा  के बीज कौशल्या सी नारी तिथियों मे तीज  ह्रदय मे वत्सलता  गुणीयों का रत्न   नियति भी लिखती है  न बिकती हर चीज