शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

दिखती दूर तक रेत

जीता मरता रोज यहां, जीवन उसका ताप
मजदूरों की पीड़ा को , नाप सके तो नाप

उनकी अपनी थी शंकाये, उनके अपने डर
तू अपने हर सपने को , निर्भयता से भर

दिखती दूर तक मरुधरा, दिखती दूर तक रेत
गिरकर उठता रोज यहाँ, टपका जिसका स्वेद

जितने भी थे लौट गये , अपने अपने घर 
सूरज उगता अस्त रहा ,उसका तेज प्रखर


5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर सृजन।
    हृदय स्पर्शी।

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  2. दिखती दूर तक मरुधरा, दिखती दूर तक रेत
    गिरकर उठता रोज यहाँ, टपका जिसका स्वेद।
    बहुत भावपूर्ण । सुंदर अभिव्यक्ति ।

    जवाब देंहटाएं
  3. गिरकर उठता रोज यहाँ, टपका जिसका स्वेद
    शब्दों का अच्छा चयन...

    सुन्दर लेखन

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    इन्क़िलाब

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न बिकती हर चीज

लज्जा का आभूषण करुणा  के बीज कौशल्या सी नारी तिथियों मे तीज  ह्रदय मे वत्सलता  गुणीयों का रत्न   नियति भी लिखती है  न बिकती हर चीज