धुलेंडी चहु और रहे, प्रतिपल हो हुडदंग
जीवन उसका सुखी रहे,जिसके मन आल्हाद
होलिका के साथ जले, चिन्ता और अवसाद
जो भीतर से भींग गया,मिला उसे है स्नेह
मन के जितने रंग रहे, रंग विहीन हो देह
वे तो मुम्बई चले गये ,चले गये रंगून
रंगों से बाज़ार सजा, पूज रहे अवगुण
होलिका की और खड़ा कैसा जन सैलाब
आत्मीयता का बोध नही केवल धन का लाभ
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