कुदरत  का  है  चोर
मानव दस्यु  दैत्य  रहा 
मानव  आदम  खोर 
कुदरत  थर  थर कांप  रही 
शापित  है  हर  जीव 
हम  खुद  ही  अब  खोद  रहे 
सृजन  की  हर  नींव 
कितना  सारा खून  बहा 
मानव  तेरे  हाथ 
जीव  हिंसा  और  युध्द  हुए 
रुकते  न अपराध 
भीतर  हिंसा  कौंध  रही 
यह  हिंसक  है  दौर 
अपने  मन  के  दर्पण  पर 
करना  होगा   गौर 
कितने  जग  में  दीप  जले 
क्या  निकला  है  अर्थ 
खग दल  मरते  तेज  ध्वनि 
होता  प्रदूषण  व्यर्थ 
तुम  ऐसा  एक  पुण्य  करो 
हो  सबका  कल्याण 
हर  मन आशा  दीप जले 
हो  कुछ  नव  निर्माण 
 
