मंगलवार, 25 अक्तूबर 2022

कितने जग में दीप जले

मानव जल  थल  बाँध  रहा
कुदरत  का  है  चोर
मानव दस्यु  दैत्य  रहा 
मानव  आदम  खोर 

कुदरत  थर  थर कांप  रही 
शापित  है  हर  जीव 
हम  खुद  ही  अब  खोद  रहे 
सृजन  की  हर  नींव 

कितना  सारा खून  बहा 
मानव  तेरे  हाथ 
जीव  हिंसा  और  युध्द  हुए 
रुकते  न अपराध 

भीतर  हिंसा  कौंध  रही 
यह  हिंसक  है  दौर 
अपने  मन  के  दर्पण  पर 
करना  होगा   गौर 

कितने  जग  में  दीप  जले 
क्या  निकला  है  अर्थ 
खग दल  मरते  तेज  ध्वनि 
होता  प्रदूषण  व्यर्थ 

तुम  ऐसा  एक  पुण्य  करो 
हो  सबका  कल्याण 
हर  मन आशा  दीप जले 
हो  कुछ  नव  निर्माण 

1 टिप्पणी:

  1. वर्तमान हालात का सही चित्रण, किंतु अब बहुत कुछ बदल रहा है

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न बिकती हर चीज

लज्जा का आभूषण करुणा  के बीज कौशल्या सी नारी तिथियों मे तीज  ह्रदय मे वत्सलता  गुणीयों का रत्न   नियति भी लिखती है  न बिकती हर चीज