दिवस के प्रहर लम्बे खीचते जाते
एकांतो के घेरो में हम खुद को पाते
खिसकती कच्ची दिवाले
लग चुके द्वारो पे ताले
जुगुनुओ के अंधेरो से गहरे है नाते
चमगादड़ के स्वर सन्नाटो को है भाते
कमरों के कोने है काले
मकड़ियो ने जकडे जाले
मधुमक्खियो के वृहद् छत्ते
ऊँची सी छत को सम्हाले
भूली यादो के सिरहाने सपने है आते
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