ढला शिल्प में जब सोच है निर्मित हुआ कुछ ख़ास है
चित्रित हुई हर कल्पना दिखा रंग और उल्लास है
हुई बाग़ में तुलसी घनी हुआ पुष्ट मन विश्वास है
हुई वेदना से दिल्लगी विष्णु प्रिया निज पास है
नभ छूने को आतुर हुई चढ़ी पेड़ पर यह बेल है
तब शून्य से सृष्टि बनी हुई व्यष्टि विकसित खेल है
बरसो निखरती जिन्दगी पल में मिला वनवास है
रही स्मृतियाँ अनकही रहा मन के भीतर वास है
मन हर पुराने गम रहे रहा तिमिर फिर भी आस है
मिली हमें है नूतन जिंदगी अनुभव पुरातन पास है
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