बुधवार, 3 जून 2020

जीवन पूर्ण विराम

जीवन देकर चली गई किसकी थी यह चूक
हथिनी बच्चे से से कहे कितनी महंगी भूख

मौसम की कोई बात नही बिन मौसम का खेल
कुदरत बदला मांग रही है झेल सके तो झेल

जो होता अभ्यस्त नही जीवन पूर्ण विराम
भीतर भीतर ध्यान लगा मन को दे विश्राम

पशुवत जीवन बीत रहा पशुवत विचरे मन 
मानवता तो बोध रही कहा है मानव मन

पशु के जीवन घात रही जीवन मृत्यु खेल
कुदरत ने है खेल रचा , कस दी नाक नकेल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

न बिकती हर चीज

लज्जा का आभूषण करुणा  के बीज कौशल्या सी नारी तिथियों मे तीज  ह्रदय मे वत्सलता  गुणीयों का रत्न   नियति भी लिखती है  न बिकती हर चीज