जीवन देकर चली गई किसकी थी यह चूक
हथिनी बच्चे से से कहे कितनी महंगी भूख
मौसम की कोई बात नही बिन मौसम का खेल
कुदरत बदला मांग रही है झेल सके तो झेल
जो होता अभ्यस्त नही जीवन पूर्ण विराम
भीतर भीतर ध्यान लगा मन को दे विश्राम
पशुवत जीवन बीत रहा पशुवत विचरे मन
मानवता तो बोध रही कहा है मानव मन
पशु के जीवन घात रही जीवन मृत्यु खेल
कुदरत ने है खेल रचा , कस दी नाक नकेल
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