कुल्हड़ की
वह चाय नहीं है
मैथी का न साग
चूल्हे में
वह आग नहीं
कंडे की न राख
माटी की सुगन्ध
है बिछड़ी
कहा गई वह
प्यारी खिचड़ी
जितने भी थे
रिश्ते बिखरेलगे स्वार्थ के दाग
करुणा और क्रंदन के गीत यहां आए है सिसकती हुई सांसे है रुदन करती मांए है दुल्हन की मेहंदी तक अभी तक सूख न पाई क्षत विक्षत लाशों में अपन...
समय बदल रहा,लोग भी पहले जैसे कहाँ है अब।
जवाब देंहटाएंसारगर्भित अभिव्यक्ति।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ३१ दिसम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
वाह
जवाब देंहटाएंमार्मिक रचना
जवाब देंहटाएंवाह!!!
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