शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

मरीचिका में मृग बन छले जा रहे है

उठती लहरों पर नाविक चले आ रहे है 
आसमाँ पर बादल घने छा रहे है 
ले के पतवार नैया ,खै चल खैवैय्या 
हौसले जिंदगी में  हमें आ  रहे है 

घौसले परिंदों के बुने जा रहे है 
चुनते चुनते ही तिनके रखे जा रहे है
 राहे आसान कभी भी होती नहीं है 
 फलसफे जिंदगी के हमें भा रहे है 

चक्रवातो में दरिया भी इतरा रहे है 
भंवर लहरों पर गहरे हुए जा रहे है ,
हर चुनौती से होगा यहाँ सामना 
कामना के किनारे अब मिले जा रहे है 

समाधान की कश्ती हम लिए जा रहे है
 जहर जुल्मो सितम के पिए जा रहे है 
कभी नाविक की साँसे भी रुकती नहीं है
 मरीचिका में मृग बन छले जा रहे है

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

तू कल को है सीच

जब ज्योति से ज्योत जली जगता है विश्वास जीवन में कोई सोच नहीं वह  करता उपहास होता है  जो मूढ़ मति  जाने क्या कर्तव्य जिसका होता ध्येय नहीं उस...