सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

होली उत्सव से मिल पायी

जब होठ सत्य न बोल सके तो ,तन बोले सत की भाषा है 
तन से तन की दूरी हो कितनी,मन बसती तव अभिलाषा है 

जब शब्द भाव न कह पाया हो ,टूटी फूटी कृश काया हो
निस्तब्ध पीर की छाया हो ,मुख कुछ भी न कह पाया हो 
भक्ति भाव प्रियतम प्रीती की , गुप चुप सी होती भाषा है  

चहु घनी घनी सी छाया हो नीम बरगद भी इतराया हो
होली खेले टेसू  पलाश, मौसम ने नव गीत गाया हो
होली उत्सव से मिल पायी ,अदभुत रिश्तो की परिभाषा है

पतझड़  सम झड़ती है चिंता ,जीवन में चिंतन पाया हो 
झरते है शूल ,खिरते बबूल ,न गर्मी से चुभती काया हो 
धड़कन तडकन में रहती ,जीने की उत्कट अभिलाषा है

जब सन्नाटो से घिरी  हुई  हो ,और अंधियारे की माया हो 
सन्नाटो के बीच  रह रह कर ,ध्येय  तिमिर में पाया हो 
तब गहन निशाचर  की सृष्टि में ,पायी नव दृष्टि नव आशा है

रहे  झूल झूल लता पे फुल ,शीतल पीपल की छाया हो 
बगिया में आम फल हो तमाम ,मधुबन में मधुफल आया हो 
नियति  के पलने झूल रही ,जीने की ललक  पिपासा है


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