शनिवार, 11 जुलाई 2020

कितने सारे ठूठ

जिसके जितने रंग रहे वह उतना बदरंग
वह वैसा ही बना यहाँ जिसका जैसा संग

कितने थे अंदाज नये कितना फैला झूठ
मैला कुचला एक कमल कितने सारे ठूठ

धन पाकर न तृप्त हुआ ये कैसा अभिशाप 
जीवन का रस चला गया ढोता हर दम पाप

गुणहीन अब गुणवंत बने थे कोरे व्याख्यान
अब कौड़ी के भाव बिकी हीरे की एक खान

उनको तो वरदान मिला ,मिला हमे है शाप
तू अपनी परछाई को नाप सके तो नाप

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न बिकती हर चीज

लज्जा का आभूषण करुणा  के बीज कौशल्या सी नारी तिथियों मे तीज  ह्रदय मे वत्सलता  गुणीयों का रत्न   नियति भी लिखती है  न बिकती हर चीज