अब रिश्तों में जान नहीं
रहा नहीं है स्नेह
सम्वेदना से शून्य हुए
गहरे है संदेह
जीवन से अब चला गया
कुदरत से अनुराग
संबंधो की शाख कटी
लगी हुई है आग
सपनों में आनंद रहा
सपनों में अरमान
जीवन मे अब शेष बची
झूठी केवल शान
उनका अपना शौक रहा
उनके रहे सवाल
चुभती सी ही बात कही
खीच गई है खाल
हृदय में कुछ और रहा
बाहर से कुछ और
चेहरों पर मुस्कान रहे
भीतर से घनघोर
तू अपनी एक ऐब बता
कर ख़ुद का निर्माण
खुद ही से परिवेश रहा
नव जीवन है प्राण
जग में अपना कोई नहीं
सब है रिश्तेदार
जो भी अपना कहने लगे
हिस्से के हक़दार
बहुत सुंदर सृजन, मनुष्य ही मनुष्य के काम आता है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
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