सुख में भी जो डिगा नही ऐसा संत कबीर
जो संतो के संग रहा रखता मन समभाव
मानव नही देव रहा झेल गया हर घाव
खुद के बल पर टिका हुआ खुद पर है विश्वास
जो मूल से है जुड़ा यहा छू लेता आकाश
मिल कर के भी घुला नही इक ऐसा भी रंग
सुख सुमिरन भुला नही रहता सत के संग
मन मे तो संतोष नही दिखती नही उमंग
वह कैसा संन्यास भला कैसे हो सत्संग
वाह
जवाब देंहटाएंआभार उत्साह वर्धन के लिए
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