गहराई की और चले , गहरा हो स्वभाव
ठण्डी होती छाँव रही , देती धूप सकून
मीठी अच्छी चाय लगी, अदरक औ लहसुन
मक्का रोटी साग रही, मैथी पालक ज्वार
इनसे तू क्यो भाग रहा, ये पौष्टिक आहार
धनिया चटनी भूल गये, खरड़ रही नही याद
भरमा बैगन की सब्जी का , कितना प्यारा स्वाद
चूल्हे चौके कहाँ गये, बुझते गये चिराग
बाती में न तेल रहा, कहा कंडे की आग
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