शनिवार, 29 मार्च 2025

ईश्वर वह ओंकार

जिसने तिरस्कार सहा 
किया है विष का पान 
जीवन के कई अर्थ बुने 
उसका  हो सम्मान

कुदरत में है भेद नहीं 
कुदरत में न छेद
कुदरत देती रोज दया
कुदरत करती खेद

जिसने सारा विश्व रचा 
जिसका न आकार
करता है जो ॐ ध्वनि
ईश्वर वह ओंकार 

शुक्रवार, 28 मार्च 2025

कहा गए है पद्य

छंदों से है हुआ विसर्जन
कविता सुंदरतम
सृजन से हर प्यास बुझी है 
पद्य है सर्वोत्तम

कविता अब उन्मुक्त हुई 
कवित हुआ गद्य
जोरो से खूब शोर हुआ 
कहा गए है पद्य

हर पल अब लालित्य कहेगा
पढ़ लो गद्य निबंध
जीवन में न क्षोभ रहेगा 
फैली ऐसी सुगंध

छंदों का न अंत मिला है
मिली न अब तक थाह
कविता देती कर्म प्रखर
जीवन का उत्साह

जहा भाव का भेद रहा
वहा नहीं कल्याण 
होता है अब बहुत कठिन 
छंदों का निर्माण

जिस पर सारा कोष लुटा है 
प्रज्ञा का वरदान
उसने ललित गद्य लिखे है
गद्य है पद्य समान 

कविता होती शुद्ध कुलीन 
कविता भाव प्रधान 
कविता दोहा गीत रही 
नवगीत का अवदान


कविता निकली शुद्ध हृदय 
हृदय का कमल
कविता केवल भाव नहीं 
कवि का है कौशल







गुरुवार, 27 मार्च 2025

आस्था की झांकी

खिला है सरोवर 
खिला है किनारा
किया है किसी ने 
कमल को ईशारा
बना है यहां पर 
जल का है दर्पण
क्षितिज से उदित हो 
सूरज है पधारा

थोड़ा सा सफर है 
जीवन का है बाकी
थकन नहीं मिटती 
पिला दे है साकी
कहा गए अपने 
अधूरे है सपने
देखे नहीं दिखती है
आस्था की झांकी


रहे हौसले तो बदलेगी ये दिन

सुखद और दुखद पल 
नदी ने जिया है
 रेतीली डगर पर 
सफर तय किया है
बिखरते हुए पल 
फिर भी न बिखरी
दिया जग को अमृत
 जहर खुद पिया है

नदी के किनारे 
ओझल हो मुमकिन
मिले न सहारे 
हो कठिनाई अनगिन
अंधेरे में दीपक 
बनकर जलेंगे 
रहे हौसले तो 
बदलेंगे ये दिन

बुधवार, 26 मार्च 2025

नदी नहीं हारी



नदी में सदी है नदी का किनारा
नदी ने है वन को शहर को संवारा 
छोटी हो या मोटी नदी देती रोटी
नदी होती किस्मत नदी है सहारा

नदी मन के अन्दर नदी है समंदर
नदी से है लड़ते कितने सिकन्दर 
नदी है कुआरी नदी नहीं हारी
भंवर है नदी में ,नदी में बवंडर

नदी होती माता नदी को बचाओ
चहकते है खगदल इन्हें मत सताओ
नदी बहती अविरल नदी होती निर्मल
नदी में न कचरा जहर को बहाओ 

नदी लेती करवट नदी चीरती पर्वत
नदी की हकीकत तो जाने पनघट 
यह कितना है प्यारा नदी का किनारा
नदी ने सम्हाले कितने ही मरघट

 वो खोई है  खोई नदी नहीं रोई
कल छल है करती नदी नहीं सोई
जहा भी हरा है नदी की धरा है
नदी ने है माटी भिगोई है बोई 

नदी में है औषध रोगों को भगाओ
नदी देती जीवन लोगो को जगाओ
नदी में मैला है नदी में खेला है 
तरसते होठों को नदी तक है लाओ








मंगलवार, 25 मार्च 2025

गहराई पाई

कही ऊंचे पर्वत तो कही गहरी खाई 
शिखर से वो झर के नदी बन के आई
नदी बन के तोड़े है अहम के वो पर्वत
अहम को मिटा कर है गहराई पाई


हर दिल को वो जीत गया 
अच्छा एक इन्सान 
जीवित स्वाभिमान रखा
जीवित रखा ईमान

रविवार, 23 मार्च 2025

अदभुत हुए प्रबंध

मंत्रों से कब मोक्ष मिला
शब्दों से कब छंद
संवेदना जब साथ रही
अदभुत हुए प्रबंध 

सुन लो समझो जान लो
शब्दों के भावार्थ
जिसने सीखा जिया वही
जीवन का यथार्थ

शनिवार, 22 मार्च 2025

सुधरी न तकदीर

तकदीरों से नहीं मिला 
कोई भी है लक्ष्य
पौरुष कर पुरुषार्थ करो 
जीवन का है सत्य

उनको कीर्ति नहीं मिली
जिनको उसकी चाह
कर्मठ करता कर्म रहा
होकर बेपरवाह 

फूलों से मकरंद मिला
भंवरे से उमंग
होली में है रास रहा
लगे रंग पे रंग

उतने पैदल दूर चले 
जितना बल था पास
उतना ही सामर्थ्य रहा 
उतना ही विश्वास

कितने सारे संत मिले
कितने मिले फकीर
जीवन जहां था वहीं रहा
सुधरी न तकदीर

खिले धूप में फूल रहे
मरुथल मिले बबूल
जहा सुविधा की छाँव रही
वहा दुविधा के शूल






मंगलवार, 18 मार्च 2025

तारो से कितने बिन्दु

चमके नभ पे अंधियारे में 
तारो से कितने बिन्दु 
नीला सा उन्मुक्त गगन है 
नीला नीला है सिन्धु 
पीड़ाएं तन मन की हरती
चिड़िया से चहकी यह धरती 
कुदरत रानी खिली हुई है
खिला हुआ नभ पर इंदु


नीले जल झांका करता है

नीले हम आकाश रहे है
नीला निर्मल जल
नीले फूलों से महका है
कलरव करता दल
नीली पहने प्यार चुनरिया 
जीवन का हर पल
नीले जल झांका करता है
 नित दिन अस्ताचल

नव अंकुरित बीजों से ही
 होता नव निर्माण
नवल चेतना ही उजियारे
को देती है प्राण
निर्माणों की पीठ है छीलती
जब पड़ता भार
कोमल कर से न चल पाया
शब्द भेदी वह बाण 

सृजन का आकाश दिया है
हर पल का आभास 
ईश से यह अनुभूति उपजी
जीवन है अब खास
जिसने दी यह मस्त पवन है 
बिखरा है उल्लास
बस उसकी ही खोज रही
बस उसकी ही प्यास

सोमवार, 10 मार्च 2025

भींगी हुई पलके

पल पल और प्रतिपल 
भावनाएं छलके
आंसू के भीतर 
भींगी हुई पलके
कभी दिल ये हारी 
कभी होती भारी
खुशी इसके भीतर 
कभी दुख झलके

कभी घुप्प अंधेरा 
खामोशियां है 
कभी चुप सवेरा 
थकी पेशियां है
कभी दिन अधूरे 
भरी दोपहर तक
कभी होली खेली
 मदहोशीया है

शुक्रवार, 7 मार्च 2025

दीपक से ले बल


औरों से वे पूछ रहे 
कहा है अपना गेह
भूले भोले भाव यहां 
भूल गए है स्नेह

हर पल ही तुम खुश रहो 
चाहे जो हो हाल
जीवन से सब कष्ट मिटे
सुलझे सभी सवाल

जीवन में जो दुख रहा 
उसका भी है हल 
दीपक सी तू ज्योत जला
दीपक से ले बल

अब तक दुर्दिन गए नहीं
होता  रहा बवाल
षड्यंत्रों की भेट चढ़े
अपने सभी सवाल




रखते अपने बैर

है अपना न कोई सगा
सब लेते मुंह फेर
अनजाने तो प्रीत रखे
रखते अपने बैर

कर आए वे अभी अभी 
तीरथ चारो धाम
घर में अब तक दिखे नहीं
उनको अपने राम

अंधियारे सी गुम रही
चाहत की एक शाख
अंधियारी एक रात रही 
अंधियारी एक आंख

अंधे को है दिखा नहीं 
कुदरत का यह रूप
जीवन केवल छांव नहीं
है सूरज की धूप


मोबाईल से बात करे
बिछड़ा टेलीफोन 
गहराई से सोच रहे 
यहां अपना है कौन

अपनो को पाए है

करुणा और क्रंदन के  गीत यहां आए है  सिसकती हुई सांसे है  रुदन करती मांए है  दुल्हन की मेहंदी तक  अभी तक सूख न पाई क्षत विक्षत लाशों में  अपन...