शनिवार, 19 जुलाई 2025
बुधवार, 16 जुलाई 2025
मंगलवार, 15 जुलाई 2025
रविवार, 13 जुलाई 2025
शनिवार, 12 जुलाई 2025
शुक्रवार, 11 जुलाई 2025
बुधवार, 9 जुलाई 2025
मंगलवार, 8 जुलाई 2025
सोमवार, 28 अप्रैल 2025
अपनो को पाए है
करुणा और क्रंदन के
गीत यहां आए है
सिसकती हुई सांसे है
रुदन करती मांए है
दुल्हन की मेहंदी तक
अभी तक सूख न पाई
क्षत विक्षत लाशों में
अपनो को पाए है
शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025
सृजन के स्वर
सृजन की असीम संभावनाएं होती है, सृजन का अनंत क्षितिज होता है ,सृजन के विविध आयाम होते है, सृजन संसाधनों या किसी विशेष परिवेश का मोहताज नहीं होता l सृजन के स्वर वहा से निकलते है जहा संवेदनाएं रहा करती हैl व्यक्ति के हृदय के भीतर करुणा आद्रता सौहार्दता जैसी निर्मल भावनाओं की सरिताये बहा करती है l सृजन शील मन केवल अभिव्यक्ति के अवसर की तलाश करता है वह अपनी संवेदनाओं के बल पर अपनी पीड़ा को ही नहीं समाज की पीड़ा को गाता है l
डॉ प्रकाश उपाध्याय "क्षितिज "की कृति "सृजन के स्वर* सृजन शीलता के अदभुत शिल्प और सवेदनाओं का संग्रह है l इस संग्रह में कुछ रचनाएं गीत के शिल्प में तो कुछ रचनाएं मुक्तक के शिल्प में है , इस संग्रह में कवि ने प्रेम को परिभाषित भी किया है तो जीवन संगिनी की जीवन में सार्थकता को भी रेखांकित किया है l
डॉ प्रकाश उपाध्याय संगीत के क्षेत्र में भी पारंगत है इसलिए राम पर लिखा गया गीत भाव भाषा के धरातल पर मधुरता की अनुभूति भी देता है l माता के साथ पिता पर लिखी गई कविताएं हमारी बुजुर्ग पीढ़ी के प्रति श्रध्दा और सेवा के भाव प्रतिबिम्बित करती है l
सृजन के स्वर में जब कवि यह कहता है कि
"वो कहती मै गीतों में शृंगार नहीं ला पाता हूं
तुम कहते हो कविता में अंगार उगलने जाता हूं
तो लगता है कवि वर्तमान में बिखरे परिवेश की विद्रूपता से क्षुब्ध है l वह कृत्रिम रूप से श्रृंगार को स्वीकार नहीं करता बल्कि व्यवस्था और वर्तमान के सामाजिक अवस्था के प्रति अपना आक्रोश प्रकट करता है l
सृजन स्वर में कवि अपने सपनों से ही नहीं अपनी जड़ों से भी जुड़ा है इसलिए कभी वह रचनाओं के माध्यम से वह बीज को याद करता है तो कभी शहर की स्मृतियों में खो जाता है l
डॉ प्रकाश उपाध्याय चिकित्सा में क्षेत्र रहे है l चिकित्सक के रूप कई दशकों तक उन्होंने सेवाएं दी है l समाज की पीड़ा को उन्होंने जितनी निकटता से देखा है , वह पीड़ा भी कृति में मुखरित हुई है l
प्रयोगधर्मिता भी कृति की विशेषता है कवि ने जहा नई कविता के शिल्प रचनाएं लिखी है तो उन कविताओं में भाषा और भाव के प्रवाह को रुकने नहीं दिया है l उन कविताओं में भाव और भाषा की तरलता सरिता की तरह बही है
गर्मी पर गीत
सूरज का चढ़ता है पारा
नभ में रहता चांद सितारा
गर्मी का यह खेल रहा है
यह जग मौसम झेल रहा है
किस्मत रूठती एक बेचारा
बहा पसीना खारा खारा
जीवन का हर ताप सहा है
मीठा जल अब यहां कहा है
ढूंढ लिया है पनघट सारा
मिली कही न जल की धारा
तपती धरती कहा बिछौना
तपता है घर का हर कौना
कही दुखो की लिखी ईबारत
खुशियों का कही लगता नारा
गर्मी का जब मौसम आता
पतझड़ भी है तब इतराता
पौरुष की लगती जयकारा
मानव में फिर साहस पधारा
रविवार, 6 अप्रैल 2025
जपे राम हर पल
दीपक मन की पीर हरे
हर ले असत तिमिर
रोशन वह ईमान करे
मजबूत करे जमीर
पग पग पर संघर्ष करे
सत्य करे न शोर
वह मांगे कुछ और नहीं
मांगे मन की भोर
मन के राजा राम रहे
वे दीन के है बल
यह मन साकेत धाम रहे
जपे राम हर पल
शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025
छंदों पर प्रतिबंध है
खुली नहीं खिड़की
दरवाजे बन्द है
जीवन में बाधाएं
किसको पसन्द है
कालिख पुते चेहरे
हुए अब गहरे है
गद्य हुए मुखरित
छंदों पर प्रतिबंध है
मिली जूली भाषाएं
आवाजे कांपती है
अनुभूति आदमी की
शब्दों को भांपती है
टूटी हुई आशाएं
अभिलाषाएं मौन है
जीवन की जटिलताएं
क्षमताएं नापती है
युग युग तक जीता है
अंधियारा रह रह कर आंसू को पीता है
चलते ही रहना है कहती यह गीता है
कर्मों का यह वट है निश्छल है कर्मठ है
कर्मों का उजियारा युग युग तक जीता है
शनिवार, 29 मार्च 2025
ईश्वर वह ओंकार
जिसने तिरस्कार सहा
किया है विष का पान
जीवन के कई अर्थ बुने
उसका हो सम्मान
कुदरत में है भेद नहीं
कुदरत में न छेद
कुदरत देती रोज दया
कुदरत करती खेद
जिसने सारा विश्व रचा
जिसका न आकार
करता है जो ॐ ध्वनि
ईश्वर वह ओंकार
शुक्रवार, 28 मार्च 2025
कहा गए है पद्य
छंदों से है हुआ विसर्जन
कविता सुंदरतम
सृजन से हर प्यास बुझी है
पद्य है सर्वोत्तम
कविता अब उन्मुक्त हुई
कवित हुआ गद्य
जोरो से खूब शोर हुआ
कहा गए है पद्य
हर पल अब लालित्य कहेगा
पढ़ लो गद्य निबंध
जीवन में न क्षोभ रहेगा
फैली ऐसी सुगंध
छंदों का न अंत मिला है
मिली न अब तक थाह
कविता देती कर्म प्रखर
जीवन का उत्साह
जहा भाव का भेद रहा
वहा नहीं कल्याण
होता है अब बहुत कठिन
छंदों का निर्माण
जिस पर सारा कोष लुटा है
प्रज्ञा का वरदान
उसने ललित गद्य लिखे है
गद्य है पद्य समान
कविता होती शुद्ध कुलीन
कविता भाव प्रधान
कविता दोहा गीत रही
नवगीत का अवदान
कविता निकली शुद्ध हृदय
हृदय का कमल
कविता केवल भाव नहीं
कवि का है कौशल
गुरुवार, 27 मार्च 2025
आस्था की झांकी
खिला है सरोवर
खिला है किनारा
किया है किसी ने
कमल को ईशारा
बना है यहां पर
जल का है दर्पण
क्षितिज से उदित हो
सूरज है पधारा
थोड़ा सा सफर है
जीवन का है बाकी
थकन नहीं मिटती
पिला दे है साकी
कहा गए अपने
अधूरे है सपने
देखे नहीं दिखती है
आस्था की झांकी
रहे हौसले तो बदलेगी ये दिन
सुखद और दुखद पल
नदी ने जिया है
रेतीली डगर पर
सफर तय किया है
बिखरते हुए पल
फिर भी न बिखरी
दिया जग को अमृत
जहर खुद पिया है
नदी के किनारे
ओझल हो मुमकिन
मिले न सहारे
हो कठिनाई अनगिन
अंधेरे में दीपक
बनकर जलेंगे
रहे हौसले तो
बदलेंगे ये दिन
बुधवार, 26 मार्च 2025
नदी नहीं हारी
नदी ने है वन को शहर को संवारा
छोटी हो या मोटी नदी देती रोटी
नदी होती किस्मत नदी है सहारा
नदी मन के अन्दर नदी है समंदर
नदी से है लड़ते कितने सिकन्दर
नदी है कुआरी नदी नहीं हारी
भंवर है नदी में ,नदी में बवंडर
नदी होती माता नदी को बचाओ
चहकते है खगदल इन्हें मत सताओ
नदी बहती अविरल नदी होती निर्मल
नदी में न कचरा जहर को बहाओ
नदी लेती करवट नदी चीरती पर्वत
नदी की हकीकत तो जाने पनघट
यह कितना है प्यारा नदी का किनारा
नदी ने सम्हाले कितने ही मरघट
वो खोई है खोई नदी नहीं रोई
कल छल है करती नदी नहीं सोई
जहा भी हरा है नदी की धरा है
नदी ने है माटी भिगोई है बोई
नदी में है औषध रोगों को भगाओ
नदी देती जीवन लोगो को जगाओ
नदी में मैला है नदी में खेला है
तरसते होठों को नदी तक है लाओ
मंगलवार, 25 मार्च 2025
गहराई पाई
कही ऊंचे पर्वत तो कही गहरी खाई
शिखर से वो झर के नदी बन के आई
नदी बन के तोड़े है अहम के वो पर्वत
अहम को मिटा कर है गहराई पाई
हर दिल को वो जीत गया
अच्छा एक इन्सान
जीवित स्वाभिमान रखा
जीवित रखा ईमान
रविवार, 23 मार्च 2025
अदभुत हुए प्रबंध
मंत्रों से कब मोक्ष मिला
शब्दों से कब छंद
संवेदना जब साथ रही
अदभुत हुए प्रबंध
सुन लो समझो जान लो
शब्दों के भावार्थ
जिसने सीखा जिया वही
जीवन का यथार्थ
शनिवार, 22 मार्च 2025
सुधरी न तकदीर
तकदीरों से नहीं मिला
कोई भी है लक्ष्य
पौरुष कर पुरुषार्थ करो
जीवन का है सत्य
उनको कीर्ति नहीं मिली
जिनको उसकी चाह
कर्मठ करता कर्म रहा
होकर बेपरवाह
फूलों से मकरंद मिला
भंवरे से उमंग
होली में है रास रहा
लगे रंग पे रंग
उतने पैदल दूर चले
जितना बल था पास
उतना ही सामर्थ्य रहा
उतना ही विश्वास
कितने सारे संत मिले
कितने मिले फकीर
जीवन जहां था वहीं रहा
सुधरी न तकदीर
खिले धूप में फूल रहे
मरुथल मिले बबूल
जहा सुविधा की छाँव रही
वहा दुविधा के शूल
मंगलवार, 18 मार्च 2025
तारो से कितने बिन्दु
चमके नभ पे अंधियारे में
तारो से कितने बिन्दु
नीला सा उन्मुक्त गगन है
नीला नीला है सिन्धु
पीड़ाएं तन मन की हरती
चिड़िया से चहकी यह धरती
कुदरत रानी खिली हुई है
खिला हुआ नभ पर इंदु
नीले जल झांका करता है
नीले हम आकाश रहे है
नीला निर्मल जल
नीले फूलों से महका है
कलरव करता दल
नीली पहने प्यार चुनरिया
जीवन का हर पल
नीले जल झांका करता है
नित दिन अस्ताचल
नव अंकुरित बीजों से ही
होता नव निर्माण
नवल चेतना ही उजियारे
को देती है प्राण
निर्माणों की पीठ है छीलती
जब पड़ता भार
कोमल कर से न चल पाया
शब्द भेदी वह बाण
सृजन का आकाश दिया है
हर पल का आभास
ईश से यह अनुभूति उपजी
जीवन है अब खास
जिसने दी यह मस्त पवन है
बिखरा है उल्लास
बस उसकी ही खोज रही
बस उसकी ही प्यास
सोमवार, 10 मार्च 2025
भींगी हुई पलके
पल पल और प्रतिपल
भावनाएं छलके
आंसू के भीतर
भींगी हुई पलके
कभी दिल ये हारी
कभी होती भारी
खुशी इसके भीतर
कभी दुख झलके
कभी घुप्प अंधेरा
खामोशियां है
कभी चुप सवेरा
थकी पेशियां है
कभी दिन अधूरे
भरी दोपहर तक
कभी होली खेली
मदहोशीया है
शुक्रवार, 7 मार्च 2025
दीपक से ले बल
औरों से वे पूछ रहे
कहा है अपना गेह
भूले भोले भाव यहां
भूल गए है स्नेह
हर पल ही तुम खुश रहो
चाहे जो हो हाल
जीवन से सब कष्ट मिटे
सुलझे सभी सवाल
जीवन में जो दुख रहा
उसका भी है हल
दीपक सी तू ज्योत जला
दीपक से ले बल
अब तक दुर्दिन गए नहीं
होता रहा बवाल
षड्यंत्रों की भेट चढ़े
अपने सभी सवाल
रखते अपने बैर
है अपना न कोई सगा
सब लेते मुंह फेर
अनजाने तो प्रीत रखे
रखते अपने बैर
कर आए वे अभी अभी
तीरथ चारो धाम
घर में अब तक दिखे नहीं
उनको अपने राम
अंधियारे सी गुम रही
चाहत की एक शाख
अंधियारी एक रात रही
अंधियारी एक आंख
अंधे को है दिखा नहीं
कुदरत का यह रूप
जीवन केवल छांव नहीं
है सूरज की धूप
मोबाईल से बात करे
बिछड़ा टेलीफोन
गहराई से सोच रहे
यहां अपना है कौन
शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025
हिलेंगे डूलेंगे
रहे है अंधेरे तो
उजाले मिलेगे
खुली होगी बस्ती
ताले खुलेगे
पथ पर कठिनतम
हुई साधना है
अडिग है जो पत्थर
हिलेंगे डूलेगे
बुधवार, 12 फ़रवरी 2025
दुनिया थमी है
सरकता गगन है खिसकती जमीं है
कही आग दरिया कही कुछ नमी है
कही नहीं दिखती वह ईश्वरीय सत्ता
पर उसी सहारे यह दुनिया थमी है
पानी
पागल और प्रेमी है घायल है पानी
हुआ दिल जला तो बादल है पानी
नदी बन चला तो ताजा है पानी
बना जब समन्दर तो खारा है पानी
आंखों के अन्दर है भावों का पानी
मिले नहीं मिलता अभावों का पानी
कही एक बूंद भी मिलती नहीं है
मरुथल में मिलता है मुश्किल से पानी
मंगलवार, 11 फ़रवरी 2025
और व्यास देखो
दिखे नव उजाले
सहारे दिखे है
बवंडर के अन्दर
कोलाहल दिखे है
है अक्षर से शब्दों
हुआ एक सफर है
दिखे दुख पराए
कुछ हमारे लिखे है
पंछी और ख़गदल का
उल्लास देखो
चातक की तृप्ति
लगी प्यास देखो
हम कुदरत के भीतर
रहे ही नहीं है
इस धरती की परिधि
और व्यास देखो
सोमवार, 10 फ़रवरी 2025
समन्दर वृहद है
खुली आंख से तू
सपने को बुन ले
सफल जिंदगी की
कोई राह चुन ले
बस किस्मत के दम पर
रहे मत भरोसे
बहा श्रम सीकर तू
शिखर को ही चूम ले
रहा गम जीवन में
हुई आंख नम है
गैरो का ज्यादा
मेरा दर्द कम है
है खुद का रखोगे
जीवन सीधा सादा
पूरा होगा सपना
बढ़ेंगे कदम है
जीवन की राह
चाहे मिले सुख है
न ग़म की परवाह
रहे चाहे पथ पर
कंकड़ और पत्थर
बिछे हुए कांटे
न निकली है आह
ग़मो का अंधेरा
अंधेरे की हद है
अंधेरों के आगे
जीवन में सुखद है
जिसे मिले पथ पर
पीड़ा और आंसू
बहा सपनों का दरिया
समन्दर वृहद है
रविवार, 9 फ़रवरी 2025
योद्धा से दिखो
लगे उसकी किस्मत पर बड़े बड़े ताले
कठिन वह पलो को अब कैसे सम्हाले
मिले नहीं घर है , मिले न निवाले
पर्वत से विपदाए सहना है सीखो
जड़ों से जुड़ो और जुड़ना है सीखो
कितने हो दुर्दिन सूरज से उगो तुम
तमस से लड़ो तुम ,योद्धा से दिखो
रहे जिंदगी है घनी छांव जैसी
सकून से भरी हो माहौल देशी
खबर हो खुशी की सच्चे हो बच्चे
नहीं करते हो उसकी ऐसी की तैसी
जीवन है नदी का
जीवन है नदी का
बहना है आया
किनारों से उसने
साथ लम्बा निभाया
गति में रही वह
तो बोली है कल छल
गहरी हुई वह
तो उथला जल पाया
समंदर से जीवन
जीना है सीखो
लहरों के संग संग
रहना है सीखो
कठिन कुछ पल
ज्वार भाटे के जैसे
उन्हीं मुश्किलों में
तुम इतिहास लिखो
कहा हम तलाशे
वहीं रही सांसे
अपनो के सपनों को
कहा हम तलाशे
है मंदिर के अब तक
खुले नहीं पट है
तीर्थों पे प्रवचन
कथा में तमाशे
शनिवार, 8 फ़रवरी 2025
जले हम हवन से
भरी हुईं आँखें
टूटे हुए पर्वत
कटी हुई शाखें
किसी ने न समझी
दुखी मन की पीड़ा
लगी हुई बेड़ी
डली है सलाखें
रहे हम धरा पे
जुड़े हम गगन से
ऊंचे हो इरादे
उड़े हम पवन से
चले जब भी पथ पर
हो जाए लथपथ
जले दीप शिखा से
जले हम हवन से
रहा वही इन्सान
जिसने विश्वास पाया
भागीरथ बना और
गंगा है लाया
पत्थर को बिन कर
बनाए शिवाले
पत्थर और कंकर में
ईश्वर जगाया
नवल गीत गया
नहीं जिसने जीवन में
मधुमास पाया
गहन वेदना का नवल
गीत गया
मिले जिसको रिश्ते
कटीले नुकीले
हुए हाथ चोटिल
हुई जीर्ण काया
धरा है प्रफुल्लित
है उन्मुक्त गगन
इधर उड़ते पंछी
उधर रहते मगन
पवन बहती ताजी
थोड़ा मुस्करा लो
सूरज दे रहा है
जीवन को है अगन
धरा जिसने पाई
उसका आकाश अपना
मगर घर का मिलना
केवल एक सपना
सपनों में बीता
बचपन और यौवन
मिली न विरासत
अब तो जीवन में तपना
शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2025
समंदर
समंदर के अन्दर है
कितने शिवाले
रहे रत्न सारे
है उसने सम्हाले
समन्दर से अमृत
समंदर बनो तुम
है अपने भीतर यह
कई राज पाले
समंदर में नदिया
समंदर में सदिया
समंदर में पाई है
सुन्दर सी बगिया
कही इसके भीतर
है हालात बदतर
है इसमें समाई
जीवन की बतिया
दुखी है समंदर
दुखी है किनारा
दुखी हुई धरती
और जंगल सारा
दुखी हो के बादल
बरसाता है जल
दुखी ही बना है
दुखी का सहारा
गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025
क्षितिज के किनारे
यही बहती नदिया
किनारे बहे है
ढहते हुए पर्वत
ऊंचे किले ढहे है
भले छू लो ऊंचा
आकाश कितना
क्षितिज किनारे
रहे अनछुए है
समुंदर असीम है
क्षितिज उसका कोना
रखो धैर्य अपना
होगा जीवन सलोना
रहे हर किनारे पे
मगरमच्छ सारे
अगर कोई डराए
मगर तुम डरो ना
है जितने भी तारे
जमीन पे सारे
जमीन पे है नभ से
किसी ने उतारे
नदिया है झीलमिल
झीलमिल किनारे
क्षितिज से है जल पर
दिखे है नजारे
जरा सी गली है
गली में है नारा
चुनावी क्षणों में
चढ़ा हुआ पारा
जीता जैसे नेता
हुआ ऐसे ओझल
मिला है वहीं तो
नेता जो है हारा
समंदर में नदिया
नदिया में नाले
सरोवर धरोहर
कुएं जल के प्याले
नहरों से कितनी
सूख गई नदिया
शहरों की खुशियों से
दुखी गांव वाले
खाली मन की बगिया
खाली हुई थाली
चुभे जैसे नश्तर सी
उनकी है गाली
पड़ी नहीं दृष्टि
तरसते जीवन पर
नहीं अब फूलों को
मिलता है माली
घनीभूत पीड़ा के दरिया बहे है
अंधेरों के भीतर
उजाले रहे है
घनीभूत पीड़ा के
दरिया बहे है
ये कैसा मुकद्दर
जहां है समन्दर
ख्यालों में खारे
अनुभव रहे है
जरा पूर्व जन्मों का
कही पाप धो लू
लिखूं आत्म कथा
और भेद खोलूं
कही यादें पनघट
कही यादें मरघट
जो थोड़ा सकून हो तो
जीवन को है जी लू
ये सारी है दुनिया
क्या तुम जीत लोगे
जितना भी दम होगा
तुम उतने चलोगे
यदि है इरादे
बड़े रहे मकसद
तो स्वर्णिम शिखर को
तुम चूम लोगे
कही बंद पट है
कही बंद तट है
कही गंगा जमुना
किनारों पे वट है
कही कुंभ में जाने
आने के लिए
कही भीड़ उमड़ी
कही सन्त मठ है
कही आते जाते हुए
रस्ता है देखे
वे घूर घूर कर
कही आंख सेके
खड़े हुए मजनू
चौराहों पर है
बने हुए रहवर
कही जाल फेंके
रविवार, 2 फ़रवरी 2025
सृजन खिल खिलाया
गीतों की धारा ने है
सौंदर्य गाया
गजल डूबी गम में
छंद मुस्कराया
कभी व्यंग करते
दोहे रहे है
साहित्यिक सुरों से
सृजन खिलखिलाया
शनिवार, 1 फ़रवरी 2025
जीवन तेरा तब है
द्वेष दुर्भावना का
किया जाए अन्त
स्नेह सद्भावना को
करे हम जीवन्त
टूट गई आशाओं को
एक विश्वास देकर
नई सम्भावना का
ले आए वसन्त
खुली हुई खिड़की
खुला हुआ नभ है
लिखी नव इबारत
जीवन तेरा तब है
कही दिखते पलकों पे
करुणा के आंसू
ऊंची हुईं मीनारें
नहीं दिखता रब है
रविवार, 19 जनवरी 2025
ब्रह्मा विष्णु महेश
जिसका कुछ मंतव्य रहा
उसका है गंतव्य
वो पाए अधिकार यहां
जिसके कुछ कर्तव्य
प्राणों पर है बोझ रहा
जो कुछ कर तत्काल
जिसका होता कोई नहीं
उसके तो महाकाल
जीवन जिसका शेष नहीं
उसका यह परिवेश
उसका होता प्रिय सखा
ब्रह्मा विष्णु महेश
गंगा यमुना यही बही
रहता यही प्रयाग
तीर्थों से उसे पुण्य मिला
हृदय जो निष्पाप
शनिवार, 18 जनवरी 2025
उनके रहे विचार
पिता जी ने कहा नहीं
हृदय का कोई दुख
वे तो सबको बाँट गए
जीवन का हर सुख
पिता जी चुपचाप रहे
पिता जी है मौन
जीते जी आदर्श रखे
जीवन का हर कोण
पिता जी कोई देह नहीं
है वैचारिक तार
दैहिक थे जो चले गए
उनके रहे विचार
पिता जी परमार्थ रखे
पिता है यथार्थ
वे तो मेरे प्रिय सखे
मैं हूं केवल पार्थ
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