सवेरा सूरज की किरण से लड़ा है तमस का शकुनि उधर चुप खड़ा है जिसे हर तरफ से है षड्यंत्र घेरे रही मुंडमाला है वही मन्त्र फेरे चला कर्म के पथ क्षत विक्षत पड़ा है हुई पस्त काया छाया की जय है रहा छद्म शत्रु रहा दुराशय है चला ऐसा युध्द जो निरंतर बढ़ा है कभी मस्त मौसम कभी उठते शोले रही जब नमी तो बहते है रेले भरी गर्मियों में पारा उसका चढ़ा है